स्वतंत्रोपरांत आंदोलन में जनजातीय भूमिका

 

(श्रीमती) वृन्दा सेनगुप्ता

सहायक प्राध्यापक, समाजशास्त्रए शा. ठा. छेदीलाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जांजगीर, जिला-जांजगीर-चांपा

 

प्रस्तुत शोधपत्र स्वतंत्रता आंदोलन में जनजातियों की भूमिका पर प्रस्तावित है। शोधपत्र में द्वैतियक समंकों का प्रयोग किया गया है।

 

 

सारांश

अनुसूचित जनजातियाँ (एस.टी.) देश की कुल जनसंख्या की 8 प्रतिशत है। सन् 2001 में उनकी संख्या लगभग 820 लाख थी। उन्हंे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. सीमा क्षेत्रीय जनजातियाँ

2. गैर-सीमा क्षेत्रीय जनजातियाँ

वे जनजातियाँ या जनजातीय समुदाय या ऐसी जनजातियों या जनजातीय समुदायों के हिस्से या समूह जिन्हें उपर की धारा के तहत संविधान के प्रयोजन हेतु अनुसूचित जनजातियाँ माना जाता है, 1950वें आदेश के अनुसार 212 जनजातियों को अनुसूचित जनजातियां घोषित किया गया है।

 

जनजातियां नृजातिक समूह ;म्जीदपब ळतवनचेद्ध हैं। विभिन्न जनजातियों की अपनी संस्कृतियाँ, यथाबोली, जीवन-शैली, सामाजिक संरचनाएँ, रीति-रिवाज, संस्कार, मूल्य आदि हैं जो उन्हें प्रमुख गैर जनजातीय कृषक सा. समूहों से अलग करती है। इसी के साथ, इनमें से कई जनजातियाँ स्थायी रूप से खेतिहर बन गई हैं और इनमें सा. विभिन्नताएँ विकसित हो गई हैं। इनकी कृषि समस्याएँ, कुछ सीमा तक, वे ही थीं और हैं जो अन्य गैर-जनजातीय कृषकों की रही है।

 

कई विद्वानों ने जनजातीय आंदोलन को कृषक आंदोलन के रूप में माना है (गफ़, 1974; देसाई, 1979; गुहा, 1983)। रंगा और सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेताओं ने जनजातियों को आदिवासी किसान कहा है। के. एस. सिंह ने भी इन विद्वानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से सहमति प्रकट की है। वे कहते हैं, ऐसा दृष्टिकोण जनजातीय सा. बनावट की विभिन्नताओं के महत्व को कम आंकता है जिसका जनजातीय आंदोलन एक हिस्सा है, दोनों संरचनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं (1985)

 

 

 

प्रस्तावना-

सदियों से समाज की मुख्यधारा से अलग रहने के कारण आदिवासी अन्य वर्गों की तुलना में अत्यंत पिछड़े हुए हैं। छ.. राज्य की 31.76ः जनसंख्या अनुसूचित जनजातियाँ की हैं। यहाँ 27 जिलों में से उत्तरी एवं दक्षिणी क्षेत्र के 16 जिलों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या कुल जनसंख्या का 35 से 80ः के मध्य है। राज्य की 44ः भूमि वनों से ढकी हुई है।

 

.. का इतिहास जितना प्राचीन है, उतने ही प्राचीन जनजातीय भी है। छ.. की पहचान उसके जंगल और जनजातियों के लिए है पर पिछले कुछ वर्षों में इस्पात, लोहा, संयंत्र और खनन परियोजना ने जनजातियों का जीवन संकट में डाल दिया है। बस्तर, दंतेवाड़ा जिलों में जहाँ नक्सलवाद के कारण जनजातियों का जीवन दूभर हो गया है, तो सरगुजा, कोरबा और जशपुर जिले में खनिज संसाधनों का दोहन और सरकारी उपेक्षा जनजातीय समाज के लिए खतरा बन चुका है।

 

जल, जंगल और जमीन आजादी के बाद से लगातार जल, जंगल और जमीन के कारण उन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ा है और भला अनचाहे विस्थापन से बड़ा दर्द क्या हो सकता है?

 

उद्देश्य- प्रस्तावित अध्ययन को सुचारू रूप से संपादित करने हेतु निम्न उद्देश्य निर्धारित किए गए हैंः-

1. राज्य की अनुसूचित जनजातियों को ज्ञात करना एवं समाज पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को ज्ञात करना।

2. अनुसूचित जनजातियों की संख्या ज्ञात करना है।

3. अनुसूचित जातियों की विकास में बाधक तत्वों को ज्ञात करना एवं दूर करने हेतु सुझाव देना है।

4. सामाजिक आंदोलन उनके आंतरिक एवं बाह्य विकास में बाधक है। जिसे जड़ से समाप्त करने की कोशिश करना।

5. सामाजिक आंदोलन को रोकने के सरकारी प्रयास किए गए हैं। उसमें संशोधन करके न्यायपूर्ण एवं लाभदायक नियमों को लागू करवाना।

6. राज्य सरकार/केन्द्र सरकार के द्वारा इनके सर्वांगीण विकास के लिए अपील करना।

7. जनजातीय आंदोलनों का व्यक्ति विकास के लाभ ज्ञात करना।

 

परिकल्पना-

1. सामाजिक आंदोलनों के  सकारात्मक/नकारात्मक प्रभावों को ज्ञात करना।

2. सामाजिक आंदोलनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विकास को ज्ञात करना।

 

शोध-प्रविधि-

प्रस्तुत अध्ययन द्वैतियक समंकों पर आधारित है। अध्ययन में बोधगम्यता एवं वैज्ञानिकता लाने के लिए विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करके सार को लिया गया है।

 

अध्ययन क्षेत्र-

यह शोधपत्र भारत में सामाजिक आंदोलन जनजातीय संदर्भ से संबंधित है। अध्ययन का आधार स्वतंत्रता पूर्व जनजातीय आंदोलन एवं स्वतंत्रता पश्चात् जनआंदोलन से है।

 

 

सामाजिक आंदोलनों के अध्येता इस विश्लेषण पर सहमत हैं कि सामाजिक प्रभावों को उत्पन्न करने वाले सामूहिक क्रियाओं से युक्त आंदोलन सामाजिक कहे जाते हैं। जैसा कि एम.एस.. राव ने लिखा है, ‘‘प्रत्येक सामाजिक आंदोलन में व्यक्तिगत क्रिया की अपेक्षा सामूहिक क्रियाएँ महत्वपूर्ण हैं। यह प्रमाणिक तथ्य है किन्तु महात्मा गांधी की व्यक्तिगत सत्याग्रह की अवधारणा इसे प्रश्न चिन्हित करती है। सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में विचार धारा, मूल्य, प्रतिमान एवं संख्या के विवादों में उलझे बिना हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक आंदोलन पूर्ण या आंशिक परिवर्तन हेतु समाज के किसी वर्ग द्वारा किया गया वह संगठित प्रयास है जो किसी विचार पर आधारित होकर संचालित होता है।’’

 

भारत की जनजातियों में अनेक प्रकार के आंदोलन हुए हैं। इनमें से कुछ धार्मिक आंदोलन हैं और कुछ राजनीतिक परन्तु प्रत्येक जनजातीय आंदोलन ने तत्कालीन समाज के अनेक पक्षों को प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास द्वारा चलाया गया धार्मिक आंदोलन, दीर्घकालिक सामाजिक प्रभाव को व्यक्त करता है। बिहार जिसमें जनजातियों की सघनता से इन्कार नहीं किया जा सकता वहाँ भी कुछ जनजातियों में सशक्त सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन हुए हैं। इस प्रपत्र में हम बिहार की तीन प्रमुख जनजातियों के आंदोलनों का उल्लेख कर रहे हैं। मुण्डा जनजाति बिहार की एक प्रमुख जनजाति है जिसकी आज जनसंख्या लगभग 28 लाख से अधिक है। इस जनजाति के अधिकांश सदस्य बिहार के औद्योगिक नगर (जिला) रांची के आसपास निवास करते हैं। भारत की अन्य जनजातियों की तुलना में मुण्डा जनजाति के सदस्य राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक रहे हैं। इस तथ्य को उन्नीसवीं सदी के मुण्डा विद्रोह के आधार पर समझा जा सकता है। मुण्डा जनजाति में सामुदायिक एवं स्थानांतरित कृषि का प्रचलन था। सन् 1793 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा जमींदारी प्रथा का उदय किया गया। इस प्रथा के परिणामस्वरूप मुण्डा जनजाति के अनेक ग्राम जमींदारों के अधिकार क्षेत्र में आए। स्थानांतरित एवं सामूहिक कृषि पर रोक लगाने के लिए जमींदारों के सशस्त्र अधिकारियों और मुण्डा जनजाति के सदस्यों में द्वंद्व की उत्पत्ति हुई। परिणामस्वरूप मुण्डा, डीकू (बाहरी लोग) से घृणा करने लगे।

 

इन परिस्थितियों में मुण्डा और जमींदार के मध्य संघर्ष विकसित होने लगा। छिटपुट संघर्षों को संगठित करने का कार्य सन् 1885 में बिरसा मुण्डा नामक युवा ने लिया। बिरसा मुण्डा के संदर्भ में यह प्रचलित हो गया कि उसमें अलौकिक शक्तियों का वास है। अलौकिक शक्तियों के प्रभाव के प्रति जनता की विश्वसनीयता से मुण्डा जनजाति के सदस्यों का झुकाव बिरसा की ओर होने लगा। सन् 1895 तक बिरसा के प्रभाव क्षेत्र में मुण्डा जनजाति के अनेक गांव शामिल हो गए। इसी वर्ष बिरसा के नेतृत्व में आठ हजार से अधिक आदिवासियों ने अपने शोषण के विरूद्ध मुण्डा विद्रोह कर दिया। जमींदारी प्रथा द्वारा उत्पन्न शोषण के विरूद्ध मुण्डा विद्रोह पाँच वर्षों तक निरंतर चलता रहा। यह विद्रोह तभी शांत हुआ जब बिरसा की मृत्यु हो गई।

बिहार की ही एक दूसरी प्रमुख जनजाति उर्राव है, जिसकी जनसंख्या आज लगभग 16 लाख है। बिहार की सभी जनजातियों में केवल यही एक जनजाति है जिसकी भाषा द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है, जबकि इनके शारीरिक लक्षणों को द्रविड़ियन प्रजाति के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है।

 

उर्राव जनजाति से संबंधित अनेक लोक कथाओं से प्रतीत होता है कि यह जनजाति पश्चिमी भारत से आकर बिहार में बसी है। इतिहासकार इसका काल पहली शताब्दी मानते हैं। यह जनजाति कृषक जनजाति है तथा मुख्यतः बिहार के रांची, पलामू और सिंहभूम जिलों के पठारों पर निवास करती है। उर्राव जनजाति का राजनीतिक संगठन अत्यंत सुदृढ़ है। जिसमें मुखिया प्रथा वंशानुगत है। प्रत्येक ग्राम के परंपरागत मुखिया की भांति अन्तग्र्रामीण मुखिया प्रथा भी है, जिसकी पंचायत को परहा कहा जाता है। इस प्रकार इस जनजाति का राजनीतिक संगठन राज्यहीन राजनीतिक संगठन के अंतर्गत रखा जा सकता है।

 

मुण्डा जनजाति के विद्रोह के बाद 1914 में उराव जनजाति में भी आंदोलन के बीजों का प्रस्फुटन हुआ। इस काल में जान्ना नामक उराव जनजाति के सदस्य ने जादू और बहुदेवतावाद का विरोध करते हुए एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया। जान्ना ने धर्मेश नामक ईश्वर की उपासना का मार्ग बतलाया। परिणामस्वरूप जान्ना के अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई। इस धार्मिक आंदोलन को ताना भगत आंदोलन के नाम से जाना जाता है। धार्मिक संगठन के स्वरूप और संचार घनत्व के बढ़ने के साथ ही इस जनजाति में राजनीतिक आंदोलन का प्रस्फुरण हुआ। यह राजनीतिक आंदोलन प्रारंभ में ईसाई मिशनरियों के विरूद्ध उत्पन्न हुआ और बाद में इसका स्वरूप पूर्णतः राजनीतिक होता गया। 1921 से लेकर 1947 तक ताना भगत आंदोलन अंगे्रजों, जमींदारों और ईसाई मिशनरियों के विरोध में सत्ता संघर्षरत रहा। स्वतंत्रता के पश्चात भी इसके अनुयायियों ने ईसाई मिशनरियों का विरोध किया तथा भूमि के प्रश्न को लेकर बाह्य व्यक्तियों से भी संघर्ष चलता रहा।

 

संथाल जनजाति बिहार की एक प्रमुख जनजाति है, जनसंख्या की दृष्टि से यह जनजाति केवल बिहार नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की प्रमुख जनजाति के रूप में स्वीकार की जाती है। सन् 1981 की जनगणना के अनुसार केवल बिहार में संथाल जनजाति की जनसंख्या 22 लाख से ऊपर थी। संथाल जनजाति की भाषा को पीटर स्मिट ने एशियाटिक भाषा समूह से संबंधित से संबंधित माना है। संथाल जनजाति की अथव्यवस्था प्रमुख रूप से कृषि पर निर्भर है। संथाल जनजाति की जनसंख्या का एक बड़ा भाग संथाल परगना की बांझी पहाड़ी की तलहटी में निवास करता है।

 

संथाल जनजाति की राजनीतिक प्रशासनिक संरचना अन्य जनजातियों से अलग है। इनके यहाँ (मुखिया) परंपरागत नहीं होता अपितु उसका चुनाव वयस्क सदस्यों द्वारा किया जाता है। चयन प्रक्रिया की ही भांति सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया में संथाल अन्य जनजातियों से अलग है। इनके समुदाय में बिटलाहा नामक आयोजन परम्परागत समाजों की शमनकारी दण्ड व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। परम्परागत प्रजातांत्रिक संरचना और सामाजिक नियंत्रण की सुदृढ़ व्यवस्था की पृष्ठभूमि में ही संथाल जनजाति 1855 में ऐसा विद्रोह खड़ा कर सकी जिसे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

 

अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में संथाल जनजाति के सदस्य बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में स्थायी रूप से निवास करने लगे थे। अटूट श्रम से इन्होंने पहाड़ और तराई की भूमि को कृषि योग्य बना लिया था। सन् 1793 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बनाए गये कानून के परिणामस्वरूप संथाल परगना में जमींदारी प्रथा का प्रारंभ हुआ। जमींदारी पथा के प्रादुर्भाव के कारण जहाँ एक ओर लगान में वृद्धि हुई वहीं दूसरी ओर जमींदारों और पुलिस द्वारा इनका अमानवीय शोषण भी आरंभ हुआ। शोषण एवं अन्याय के परिणामस्वरूप संथाल जनजाति के सदस्यों में विद्रोह के बीज का प्रस्फुरण हुआ। 1855 में सिद्धू तथा कान्दू के नेतृत्व में हिंसक आंदोलन का जन्म हुआ।

 

सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था में प्रजातांत्रिक संरचना के कारण इस आंदोलन को फैलने में देर नहीं लगी। लगभग 8000 से अधिक संख्या में संथालों ने हिंसक आंदोलन में भाग लिया। संथाल परगना की भौगोलिक संरचना और जनजातीय कबीलों की सक्रिय सहभागिता के कारण इस विद्रोह को लम्बे समय तक दबाया नहीं जा सका। इस विद्रोह के कारण संथालों की जागरूकता निरंतर बढ़ती चली गई।

 

बिहार की प्रमुख जनजातियाँ मुण्डा, उर्राव जनजाति के आंदोलनों से संथाल जनजाति का आंदोलन अनेक अर्थों में अलग परिलक्षित होता है-

- यह आंदोलन धार्मिक आधार पर अलौकिक शक्ति पर आधारित नहीं था।

- यह आंदोलन शोषण और अन्याय के विरूद्ध एक सशक्त चुनौती बना।

- आंदोलन से उत्पन्न जागरूकता का नैरंत्य आज भी संथाल जनजाति में दिखाई देता है।

 

शोध पत्र में वर्णित उक्त तीनों जनजातियों के आंदोलन जनजातीय आन्दोलन में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक कारकों की अहम् भूमिका को प्रतिष्ठापित करते हैं। संथाल विद्रोह के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक व्यवस्था में कसाव समूह की संगठनात्मक शक्ति को निर्धारित करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इन आंदोलनों का विवेचन और वर्तमान जनजातीय आंदोलन में एक बुनियादी अंतर दिखाई देता है। यह अंतर स्वस्फूर्तता का है। उक्त तीनों आंदोलन स्वतः जनजातीय चेतना से स्फूर्त आंदोलन थे जबकि आज बाह्य चिंतन प्रक्रिया जनजातियों को आंदोलन के लिए प्रेरित कर रही है। इतिहास से शिक्षा लेने की अनिवार्यता आज हमें यह दिशाबोध भी कराती है कि बदलती हुई परिस्थितियों में जनजातियों के पिछड़ जाने का परिणाम एक आंदोलन के रूप में हमारे समाज के समक्ष चुनौती बन सकता है।

 

आदिवासी चिर स्थायी वंचना के प्रतीक बन चुके हैं। इनके समक्ष जो चुनौतियाँ हैं वे सामाजिक चुनौती बनकर भारतीयता के समक्ष भी खड़ी हैं। हम यहाँ पर उन चुनौतियों का विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

छोटी और अलग-अलग जनजातियों में राजनीतिक आंदोलन को शुरू करने की कम क्षमता होती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों की विभिन्न प्रजातियों के बारे में राव (1976) लिखते हैं कि खासी पहाड़ियों की जनजातियाँ गारो पहाड़ियों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक रूप में सक्रिय है।

 

जो समरूप और बड़े भूस्वामी जनजातीय समुदाय हैं, जिनका आर्थिक आधार अपेक्षाकृत काफी मजबूत होता है, जैसे मुण्डा, संथाल, भील, गोंड़ जैसी जनजातियों में दिखने को मिलता है।

 

दूसरी ओर राजनीतिक आंदोलनों के दौरान, कई जनजातियाँ सुस्पष्ट नृजातिक पहचान और कभी-कभी एक सर्व जनजातीय पहचान विकसित कर लेती है। नागालैण्ड और मिजोरम की विभिन्न जनजातियों ने भी गैर जनजातीय श्रमिक जनों के साथ शोषकों के विरूद्ध लड़ने के लिए एकजुट होना शुरू कर दिया है। ये लोग मुख्यतः आर्थिक और राजनीतिक मांग उठाते हैं। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसे आंदोलन अभी पुनरूद्धारवादी और धार्मिक संघर्षों से संबंधित हैं।

 

रघुवइया (1971) ने 1778 से 1971 के बीच हुए सत्तर जनजातीय विद्रोहों की एक सूची बनाई है। उन्होंने इन विद्रोहों का कालक्रम भी दिया है। सन् 1945 में मैन इन इंडिया नामक पत्रिका में एक विद्रोही अंक का प्रकाशन किया गया था जिसमें विभिन्न जनजातीय विद्रोहों पर चार लेख प्रकाशित किए थे।

 

जनजातीय आंदोलन के तीन जिल्दों में प्रकाशित ग्रंथ (1982, 1983 और 1998) का महत्वपूर्ण योगदान है।

 

प्रथम दो जिल्दों में उन जनजातीय आंदोलनों का वर्णन किया गया है जो मुख्यतः स्वातंत्र्योत्तर काल में हुए हैं। द्वितीय जिल्द का अधिकांश भाग मध्य भारत और आंध्र के आंदोलनों तक सीमित है। इसमें द. भारत के तमिलनाडु और केरल के आंदोलनों पर केवल एक लेख है।

 

सुझाव

राजनैतिक सशक्तिकरण-

आज आदिवासी जन जिस बड़े संकट से जूझ रहे हैं, वह है पुश्तैनी जमीन से विस्थापना जो वैश्वीकरण के इस दौर में बहुत तेजी से हो रहा है।

 

बांध परियोजना, रेल्वे लाइन, खनन व्यवसाय, औद्योगीकरण, अभ्यारण एवं अन्य कारणों से आदिवासियों का अनिवार्य विस्थापन होता है तो एक तरह से उन्हें अपनी पारंपरिक जमीन व परिवेश से खदेड़ने को विवश कर दिया जाता है। इसकी वजह से उनकी जीविका के आधार भी समाप्त होते हैं। उन्हें सर्वांगीण रूप से सशक्त करने की आज आवश्यकता है।

 

निष्कर्ष-

जनजातीय आंदोलनों से संबंधित विभिन्न अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते हैं कि वे स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के बाद के विभिन्न संघर्षों में आदिवासी लोग उग्र रहे हैं। ये अध्ययन यह भी प्रदर्शित करते हैं कि पहले और अभी के आंदोलनों में जनजातियों द्वारा उठाये गए मुद्दों की बदलती हुई प्रकृति के बीच बड़ी पतली रेखा है। और वह धीरे-धीरे धूमिल पड़ती जा रही है। उन्नीसवीं सदी के अध्ययन अधिकांशतः उनकी भूमि और जंगल के अधिकारों पर केन्द्रित थे। फिर भी, पिछले तीन दशकों में पहचान और नृजातीयता के मुद्दों पर अधिकाधिक रूप में जोर दिया जा रहा है।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से किए गए प्रयत्नों ने इन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ने में महती भूमिका निभायी है। जनजातीय क्षेत्रों में बेहतर आधारभूत सुविधाओं के विस्तार से उनमें शिक्षा का स्तर बढ़ने एवं यातायात व संचार के साधनों के विस्तार ने उन्हें क्षेत्र विशेष से बाहर निकालकर सभ्य समाज से जोड़ दिया है। परिणामतः उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति भी बदली है और वे अब सशक्तीकरण की ओर बढ़ रहे हैं।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पिछले 64 वर्षों में देश में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास हेतु किए गए प्रयत्नों में जनजातीय क्षेत्रों का विकास और जनजातियों का राजनैतिक सशक्तिकरण भी एक प्रमुख बिंदु है।

 

स्वधार्मिकता, स्वसंस्कृति, आत्मपरंपराओं तथा स्वसामाजिक मूल्यों के यशोगान का पुनर्वाचन 20वीं और 21वीं सदी के संधिकाल की नई फसल है। इस संक्रामक फसल में कुछ संक्रमणशील बीमारियाँ भी हैं। इनसे बचाव कैसे हो? कम से कम कोई पुराना माॅडल इस नई समस्या से नहीं जूझ सकता। भारतीय समाज आदिवासियों को मुख्य धारा में सम्मिलित कर समग्र सामाजिक सम्पन्नता को प्राप्त कर सके और जनजातीय समाज के समग्र विकास की दिशा में प्रयास हो।

 

REFRENCES:

1.      Agrawal and Singh the Economics of under development.

2.      Ali, S.F.: Tribal Demography in M.P. Jai Bharat Pub. Bhopal 1973.

3.      Chavdhuri, B.D.: “Tribal Development in India” Problems and Prospects, D.K. Pub. New Delhi, 1982.

4.      Griffiths, W.G.: The Koltribe centeal India, Calcutta, 1946.

5. रचना पत्रिका, .प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, नवं-दिसंबर 2011, लेखक डाॅ श्रीनाथ शर्मा सागर।

6. वार्षिक प्रतिवेदनः आदिम जाति एवं अनु0 जाति क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण बिलासपुर।

7. तिवारी शिवकुमार म.प्र. की जनजातियां, .प्र. हिन्दी एवं ग्रंथ अकादमी, भोपाल 1975

8. दुबे श्यामाचरण-1992 विकास का समाजशास्त्र वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

9. चैधरी डी.एस.- 1981 इमर्जिग लीडरशिप इन ट्राइबल इंडिया, मानक पब्लिकेशन्स।

10.      भारत में सामाजिक आंदोलन- वी.एन. सिंह, जन्मेजय सिंह रावत पब्लिकेशन्स।

11.      भारत में सामाजिक आंदोलन- घनश्याम शाह-रावत पब्लिकेशन्स।

 

Received on 12.05.2014       Modified on 19.05.2014

Accepted on 03.06.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(2): April-June 2014; Page 128-132